Monday 3 March 2014

वह दिन भी कितने ही सुहाने थे

वह दिन भी कितने, ही सुहाने थे
ढ़ूँढ़ा करते जब मिलने के बहाने थे

अब इन रोशनियों में सुकूँ नहीं यहाँ 
खूबसूरत वही घर के दीये पुराने थे

अब कहाँ बचे वो शजर इस बस्ती में
कभी हुआ करते जहाँ आशियानें थे

दिल में हौसला हो तो नामुकिन नहीं
वो शहर बसाना जहाँ बसे वीराने थे

शमा की चाहत में फ़ना होते परवाने
लोग समझते हैं शायद वह दीवाने थे

—सुनीता

4 comments:

  1. बहूत ही बेहतरीन कथ्य वा भाव

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  2. सुन्दर बेहतरीन प्रस्तुति आपकी। हार्दिक बधाई

    एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: जज़्बात ग़ज़ल में कहता हूँ

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