Sunday 23 March 2014

बोली लगी

मैं,
सोचते-सोचते
दूर तलक
निकल गई ॥

न जाने,
आज मुझे
मेरी तन्हाई
क्यूँ अच्छी
लगने लगी ?

बाज़ार से,
गुज़र के भी
बेख़बर रही ॥
सुना 
औरों से
मेरी भी,
बोली लगी ॥
--सुनीता

Sunday 9 March 2014

मिले

दुनिया की
इस भीड़ में
लोग मिले
बेहिसाब मिले।
पर शायद,
किसी तम्मना
के साथ
बेशुमार मिले !

मेरे दिल
कि यही
बस एक
तमन्ना है।
अगर
कोई मिले
तो,
बेसबब मिले।
—सुनीता

Friday 7 March 2014

हम सँवर जाते

गर तुम यादों की हद से गुज़र जाते
तेरी खातिर फिर से हम सँवर जाते

अब सूरत देख के आईने में क्या करें
तेरी आँखों में बस के, निख़र जाते

तुम इक बार विश्वास करते हमपर
तेरी ख़ातिर सब से दुश्मनी कर जाते

चाह नहीं थी मुझे किसी चाहत की
तुम जो चाह लेते तो हो हम ज़र जाते

यादें बसी हुई है दर-ओ-दीवार में
नहीं तो हम भी गाँव छोड़ शहर जाते
—सुनीता

(ज़र= स्वर्ण, सोना)

Monday 3 March 2014

वह दिन भी कितने ही सुहाने थे

वह दिन भी कितने, ही सुहाने थे
ढ़ूँढ़ा करते जब मिलने के बहाने थे

अब इन रोशनियों में सुकूँ नहीं यहाँ 
खूबसूरत वही घर के दीये पुराने थे

अब कहाँ बचे वो शजर इस बस्ती में
कभी हुआ करते जहाँ आशियानें थे

दिल में हौसला हो तो नामुकिन नहीं
वो शहर बसाना जहाँ बसे वीराने थे

शमा की चाहत में फ़ना होते परवाने
लोग समझते हैं शायद वह दीवाने थे

—सुनीता