Friday 7 February 2014

चलो.…

चलो.…
आज फिर से,
मुक़दर आज़माते हैं।
टूटी कश्ती है,
अब हम इसे 
किनारे लगाते हैं।
उलझ गई है,
ज़िंदगी तो क्या है!
रिश्तों में जो,
दूरियाँ आई है,
उसे मिटाते हैं।
समंदर के तूफाँ से,
अब क्या डरना?

चलो…..
आँखों में अपने-
दरिया बसाते हैं।
भटकते रहे,
रोशनी के लिए,
यहाँ वहाँ!
फ़लक में,
नया एक सितारा
अब जड़ते हैं।
माना कुछ ख्वाब,
टूट भी जाते है!
क्यूँ न,
एक नया ख्वाब 
फिर से सजाते हैं।

--सुनीता

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