Tuesday 17 June 2014
Tuesday 29 April 2014
Sunday 23 March 2014
Sunday 9 March 2014
Friday 7 March 2014
हम सँवर जाते
गर तुम यादों की हद से गुज़र जाते
तेरी खातिर फिर से हम सँवर जाते
अब सूरत देख के आईने में क्या करें
तेरी आँखों में बस के, निख़र जाते
तुम इक बार विश्वास करते हमपर
तेरी ख़ातिर सब से दुश्मनी कर जाते
चाह नहीं थी मुझे किसी चाहत की
तुम जो चाह लेते तो हो हम ज़र जाते
यादें बसी हुई है दर-ओ-दीवार में
नहीं तो हम भी गाँव छोड़ शहर जाते
—सुनीता
(ज़र= स्वर्ण, सोना)
Monday 3 March 2014
वह दिन भी कितने ही सुहाने थे
वह दिन भी कितने, ही सुहाने थे
ढ़ूँढ़ा करते जब मिलने के बहाने थे
अब इन रोशनियों में सुकूँ नहीं यहाँ
खूबसूरत वही घर के दीये पुराने थे
अब कहाँ बचे वो शजर इस बस्ती में
कभी हुआ करते जहाँ आशियानें थे
दिल में हौसला हो तो नामुकिन नहीं
वो शहर बसाना जहाँ बसे वीराने थे
शमा की चाहत में फ़ना होते परवाने
लोग समझते हैं शायद वह दीवाने थे
—सुनीता
Wednesday 12 February 2014
अक्सर
माना कितने ही चिराग़ रोज़ सँवर जाते हैं
पर कुछ सहर होने से पहले बिखर जाते हैं
हाँ ! ये ज़िंदगी काँटों का सफर है लेकिन
फ़िर भी कुछ रास्ते फूलों से गुज़र जाते हैं
मिट्टी के घरोंदे यहाँ टूट जाते हैं अक्सर
हो जब भी यहाँ कुदरत के कहर जाते हैं
जब भी तेरे ख्वाब पलकों में उतर आए
फ़िर वक़्त के लम्हे मानो ठहर जाते हैं
--सुनीता
देख लेते हैं
कैसे चल रहा है आज,
गुज़ारा देख लेते हैं॥
चलो बदलते वक़्त क़ा,
नज़ारा देख लेते हैं॥
आज धुँधला सा आया है,
चेहरा निगाहों में,
चलो आईना फिर हम,
दुबारा देख लेते हैं॥
यहाँ कब डूबेगी कश्ती,
क्या पता किसको?
चलो फिर भी आज,
किनारा देख लेते हैं॥
होता है मुक़द्दर क़ा,
बदलना ना मुमकिन,
फिर भी आज़मा कर,
सितारा देख लेते हैं॥
—सुनीता
Friday 7 February 2014
चलो.…
चलो.…
आज फिर से,
मुक़दर आज़माते हैं।
टूटी कश्ती है,
अब हम इसे
किनारे लगाते हैं।
उलझ गई है,
ज़िंदगी तो क्या है!
रिश्तों में जो,
दूरियाँ आई है,
उसे मिटाते हैं।
समंदर के तूफाँ से,
अब क्या डरना?
चलो…..
आँखों में अपने-
दरिया बसाते हैं।
भटकते रहे,
रोशनी के लिए,
यहाँ वहाँ!
फ़लक में,
नया एक सितारा
अब जड़ते हैं।
माना कुछ ख्वाब,
टूट भी जाते है!
क्यूँ न,
एक नया ख्वाब
फिर से सजाते हैं।
--सुनीता
Subscribe to:
Posts (Atom)